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By: Dr. Kunwar Bechain

अपनी सियाह पीठ छुपाता है आइना
सब को हमारे दाग़ दिखाता है आइना

उस का न कोई दीन, न ईमान ना धरम
इस हाथ से उस हाथ में जाता है आइना

खाई ज़रा सी चोट तो टुकड़ों में बट गया
हम को भी अपनी शक्ल में लाता है आइना

हम टूट भी गए तो ये बोला न एक बार
जब ख़ुद गिरा तो शोर मचाता है आइना

शिकवा नहीं कि क्यूँ ये कहीं डगमगा गया
शिकवा तो ये है अक्स हिलाता है आइना

हर पल नहा रहा है हमारे ही ख़ून से
पानी से अब कहाँ ये नहाता है आइना

सजने के वक़्त भी ये हमें दे गया खरोंच
बस नाम का ही भाग्य-विधाता है आइना

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