By: Chandrabali Sharma
मैं जब भी उसे देखता, उसे अपनी ओर देखते पाता। उसे देखकर मेरा मन-मयूर नृत्य कर उठता। वो भी गोल-गोल घूमने लगती। मैं जब उसकी आँखों में आँखे डालकर
देखता तो लगता जैसे उसका मेरा जनम-जनम का नाता है। उसका समय से सोना, समय से उठना, सब-कुछ घड़ी की सुईं की तरह निश्चित होता था। जब वह सो रही होती थी तब मैं उसको घण्टों निहारा करता था। उसको निहारते वक़्त ना तो कभी मेरी आँखे ही थकती थी और ना मन भरता था। उसको अपलक निहारते-निहारते कब मेरी आँखें बोझिल हो जाती मुझे पता ही नहीं चलता था। सुबह को जब मेरी आँख खुलती तो मैं उसको अपने सामने ही पाता।
किन्तु एक दिन ऐसा आया कि वह हम सबको छोड़कर चली गई। अब तो उसकी यादें ही हमारे पास रह गयीं है। जब हम कभी ऑस्ट्रेलिया जाते तो उसको छोड़कर आने का मन नहीं करता था। उसकी मधुर आवाज मन में आज भी बसी है। सुबह उठते ही कितना मधुर गाया करती थी वो। पर एक दीपावली ऐसी आई कि वो मधुर कंठ हमेशा के लिए शान्त हो गया। आज भी दीपावली है, उसकी याद रह-रहकर आ रही है। अब कभी ऑस्ट्रेलिया जाने का सोचते हैं तो लगता है कि उसका वह खाली कोना हम कैसे देख पायेंगे। मन में एक हूक से उठती है और मन से बस यही निकलता है-“चुनमुन तुम कहाँ चली गयीं?