Skip to main content

Australianchal

Through this Hindi e-magazine broadcast from Australia, it is our endeavour that we can take Hindi literature to every corner of the world.

Latest Magazines

See previous magazines

Recent Writings

Filter

ग़ज़ललेख

संस्मरण – चुनमुन

By: Chandrabali Sharma

मैं जब भी उसे देखता, उसे अपनी ओर देखते पाता। उसे देखकर मेरा मन-मयूर नृत्य कर उठता। वो भी गोल-गोल घूमने लगती। मैं जब उसकी आँखों में आँखे डालकर

देखता तो लगता जैसे उसका मेरा जनम-जनम का नाता है। उसका समय से सोना, समय से उठना, सब-कुछ घड़ी की सुईं की तरह निश्चित होता था। जब वह सो रही होती थी तब मैं उसको घण्टों निहारा करता था। उसको निहारते वक़्त ना तो कभी मेरी आँखे ही थकती थी और ना मन भरता था। उसको अपलक निहारते-निहारते कब मेरी आँखें बोझिल हो जाती मुझे पता ही नहीं चलता था। सुबह को जब मेरी आँख खुलती तो मैं उसको अपने सामने ही पाता।

किन्तु एक दिन ऐसा आया कि वह हम सबको छोड़कर चली गई। अब तो उसकी यादें ही हमारे पास रह गयीं है। जब हम कभी ऑस्ट्रेलिया जाते तो उसको छोड़कर आने का मन नहीं करता था। उसकी मधुर आवाज मन में आज भी बसी है। सुबह उठते ही कितना मधुर गाया करती थी वो। पर एक दीपावली ऐसी आई कि वो मधुर कंठ हमेशा के लिए शान्त हो गया। आज भी दीपावली है, उसकी याद रह-रहकर आ रही है। अब कभी ऑस्ट्रेलिया जाने का सोचते हैं तो लगता है कि उसका वह खाली कोना हम कैसे देख पायेंगे। मन में एक हूक से उठती है और मन से बस यही निकलता है-"चुनमुन तुम कहाँ चली गयीं?

लेख

अपनी सियाह पीठ छुपाता है आइना

By: Dr. Kunwar Bechain

अपनी सियाह पीठ छुपाता है आइना
सब को हमारे दाग़ दिखाता है आइना

उस का न कोई दीन, न ईमान ना धरम
इस हाथ से उस हाथ में जाता है आइना

खाई ज़रा सी चोट तो टुकड़ों में बट गया
हम को भी अपनी शक्ल में लाता है आइना

हम टूट भी गए तो ये बोला न एक बार
जब ख़ुद गिरा तो शोर मचाता है आइना

शिकवा नहीं कि क्यूँ ये कहीं डगमगा गया
शिकवा तो ये है अक्स हिलाता है आइना

हर पल नहा रहा है हमारे ही ख़ून से
पानी से अब कहाँ ये नहाता है आइना

सजने के वक़्त भी ये हमें दे गया खरोंच
बस नाम का ही भाग्य-विधाता है आइना

लेख

नारी दिवस

By: Rekha Maitr

कितनी नादान है औरत
शताब्दियों से पुरुष
सदियाँ अपने नाम करता रहा।

कभी गुलाम की सूरत में
हाटों-बाज़ारों में
भाजी-तरकारियों सी
वह बिकती रही।

कभी सम्पत्ति की तरह
दाँव पर लगती रही
अपने बचाव के लिए
किसी स्त्री देवी को नहीं
पुरुष देवता को ही
पुकारना पड़ा उसे।

स्वयं को सभ्य और सुसंस्कृत
सिद्ध करने वाला पश्चिम तक
उसे "माईवे और हाईवे"
कह कर धमकता रहा

फर, ये 'नारी-दिवस' के
दिखावे पर क्यों करे सन्धि?
नारी सदी की माँग क्यों न करे?
मैं समझ ही नहीं पाती

लेख

आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?

By: Pandit Narendra Sharma

आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
आज से दो प्रेम योगी,
अब वियोगी ही रहेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
सत्य हो यदि, कल्प की भी
कल्पना कर,
धीर बांधूँ,
किन्तु कैसे व्यर्थ की आशा लिये,
यह योग साधूँ!
जानता हूँ, अब न हम तुम मिल सकेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
आयेगा मधुमास फिर भी,
आयेगी श्यामल घटा घिर,
आँख भर कर देख लो अब,
मैं न आऊँगा कभी फिर!
प्राण तन से बिछुड़ कर कैसे रहेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
अब न रोना, व्यर्थ होगा, हर घड़ी
आँसू बहाना,
आज से अपने वियोगी,
हृदय को हँसना सिखाना,
अब न हँसने के लिये, हम तुम मिलेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?

लेख

जरा रोशनी मैं लाऊँ समीक्षा

By: Dr. Jyotsna Sharma

डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा जी ने मेरी पुस्तक 'ज़रा रोशनी मैं लाऊँ' की भूमिका लिखकर उस पुस्तक का रूप निखार दिया।आदरणीय काम्बोज जी ने इस पुस्तक को भारत से कनाडा तक की न सिर्फ सैर कराई बल्कि इसका शानदार विमोचन आदरणीय श्याम त्रिपाठी जी (हिन्दी चेतना संपादक)के साथ मिलकर बहुत ही प्रभावी ढ़ंग से किया।मैं सभी का तहे दिल से आभार प्रकट करती हूँऔर आप सब की प्रतिक्रिया का इन्तज़ार…

ज़रा रोशनी मैं लाऊँ : निराशा के अँधेरों में आशा की दीपशिखाएँ
-डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा


जीवन की मधुर-तिक्त अनुभूतियाँ ,कल्पनाएँ , भावनाएँ जब सहृदय आह्लादकारिता अथवा रसव्यञ्जकता से परिपूर्ण शब्दार्थ-युगल के माध्यम से उतरती हैं तो, सुन्दर काव्य का सृजन होता है , भले ही वह स्फुट अलंकारादि से सुसज्जित न भी हों । ‘तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलङ्कृती पुनः क्वापि’ से आचार्य मम्मट ने काव्यत्व को विनष्ट करने वाले दोषों का निषेध और रस निष्ठ माधुर्यादि गुणों की समन्विति का विधान किया ।ध्वनि, वक्रोक्ति से ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यं’ एवं ‘रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यं’ इत्यादि तक और अद्यतन भी अनेक विद्वानों ने काव्य और कविता को अपनी-अपनी तरह कहा है , परन्तु उसकी रस-निष्ठता तो प्रायः सर्वत्र रही ।काव्य का ‘सत्यं,शिवं,सुन्दरं’ से समन्वित स्वरूप ही स्वीकार्य रहा ।

अब रस क्या है और उसकी निष्पत्ति कैसे होती है ,कविता और रस का क्या सम्बन्ध है इसे प्रचलित रस सिद्धांत के प्रथम आचार्य भरत मुनि के रस सूत्र -‘विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति’ पर आचार्य मम्मट की कारिका ‘कारणान्यथ कार्याणि ….’ इत्यादि के द्वारा बहुत अच्छी प्रकार से समझा जा सकता है ।लोक में बार-बार व्यवहार से सुन्दर स्त्री आदि के प्रति रति आदि भाव मानव- हृदय में संस्कार रूप से विद्यमान रहता है , काव्य में वही स्थायी भाव है ।उसके कारण स्त्री , चंद्रोदय आदि विभाव, उपरान्त कार्य यथा – कटाक्ष आदि अनुभाव और रति आदि स्थायी भाव को बीच-बीच में पुष्ट करने वाले भाव अर्थात् संचारी भाव कविता में प्रयुक्त होने पर सहृदय के हृदय में सोए स्थायी भाव को व्यक्त कर , अद्भुत आनंद की स्रोतस्विनी प्रवाहित करते हैं ।

इस प्रकार लोक-व्यवहार और कविता का सम्बन्ध शाश्वत है ।कवि एवं कविता के आस्वादक सहृदय के लिए लोक से जुड़ा होना अनिवार्य है ।उदात्त भाव भरा , लोक अनुरञ्जनकारी , सरस काव्य सदा समाज को प्रभावित करने में समर्थ होता है , फिर चाहे वह छंदोबद्ध हो , मुक्तछंद अथवा छंदमुक्त ।लोक वर्णना निपुण कवयित्री डॉ. भावना कुँअर के काव्य- संग्रह ‘ज़रा रोशनी मैं लाऊँ’ की कविताएँ भी जन-मन से जुड़ी ऐसी कविताएँ हैं , जो जीवन के प्रायः प्रत्येक पक्ष को स्पर्श करती चलती हैं ।अपने चारों और विद्यमान हर वेदना- संवेदना को कवयित्री ने जैसे आत्मसात कर लिया है ।तभी तो वह निष्ठुर समाज में व्याप्त संवेदनहीनता के अँधेरे को अपनी कलम के माध्यम से उजालों से भर देने, घावों पर मरहम लगाने और नफरत पर प्रेम का रंग चढ़ा देने का संकल्प लेती हैं -
छाया घना अँधेरा
ज़रा रोशनी मैं लाऊँ
ये सोचकर कलम को
मैंने उठा लिया है…
सहज, सरल रची कविताओं में मन का आवेग तीव्रता से व्यक्त हुआ , चतुर्दिक खून-खराबा , बमों के धमाके कवयित्री के हृदय को विदीर्ण करते हैं और वह व्यथित होकर इस सारी दुर्दशा को स्वयं ईश्वर के प्रति पत्र लिखकर निवेदित करती हैं -
खून-खराबा है गलियों में,
छिपे हुए हैं बम कलियों में,
है फटती धरती की छाती,
तभी तुम्हें लिक्खी है पाती…
अपने देश की पुण्य स्मृतियाँ भला किसके मन को द्रवित नहीं करतीं ।कवयित्री के हृदय में भी अपनी मातृभूमि और उसपर अपने प्राण न्योछावर करने वाले शहीद बेहद सम्मान और श्रद्धा के साथ बसे हैं ।भारत के लिए कहती है-
वतन से दूर हूँ लेकिन
अभी धड़कन वहीं बसती…
वो जो तस्वीर है मन में
निगाहों से नहीं हटती…… और … शहीद भगत सिंह के लिए ममत्व से भरा उनका हृदय पुकार उठा-
फाँसी का फंदा कसता गया
फिर भी भगत मेरा हँसता रहा…
काश! एक नहीं मेरे होते हज़ार बेटे
तो वो भी हँसते-हँसते यूँ ही जान दे देते…… वीर शहीदों और भारत के प्रति श्रद्धा , प्रेम प्रदर्शित करती भावना जी की अन्य कविताएँ भी बेहद प्रभावी हैं ।
उम्र के किसी भी पड़ाव पर माँ की सुख भरी गोद भुलाए नहीं भूलती । ‘माँ’ एक शब्द मात्र नहीं , एक ऐसा अहसास है जो हर उमंग , खुशी का संवाहक है और हर दुःख का मरहम भी ।माँ को समर्पित कवयित्री की कविताएँ बेहद भावुक करने वाली हैं ।यूँ तो किस घड़ी माँ याद नहीं आती , परन्तु जन्मदिन पर दूरियाँ जैसे तड़पा देती हैं फिर चाहे वह अपना हो या माँ का ।कवयित्री कह उठती है एक सार्वभौमिक सत्य-
माँ मुझे भी प्यारी है, माँ तुम्हें भी प्यारी है…
माँ इस दुनिया में, सबसे ही न्यारी है…
‘माँ की खुशबू’, ‘माँ की डायरी’माँ के प्रति संतान के कर्तव्यों का स्मरण कराती , उसके साथ बिताए एक-एक पल को याद करती बेहद भाव पूर्ण , मर्मस्पर्शी कविताएँ बेहद भावपूर्ण हैं ।बूढ़े पेड़ की व्यथा के व्याज से एक मार्मिक दृश्य देखिए –
लगा रहता रोज ही
जैसे नया मेला
वक्त गुज़रा…
बूढ़ा गया अब पेड़
थका हारा-सा
और मज़बूर-सा
पर पंछियों को
जाने क्यों …
जरा भी पता ही न चला…
आतंकवाद आज किसी एक समाज या देश की समस्या नहीं , संक्रामक रोग की तरह फैलता जा रहा यह रोग एक ऐसी विकृति है जिसने सम्पूर्ण मानवीयता को जैसे ग्रस लिया है ।किसी न किसी रूप में सर्वत्र विद्यमान है ।दूसरी बुराइयों की तरह आतंकवाद की विभीषिका पर भी कवियों ने खूब लिखा है ।भावना जी की कलम से एक मार्मिक दृश्य देखिए-
माँ कहाँ हो तुम?/ अब मैं बहुत थक गया हूँ…
पापा तुम भी नहीं आए!
………
धुँएँ जैसी कोई चीज़ है यहाँ,/ जिससे मेरा दम घुट रहा है!
यहाँ सब लोग ज़मीन में ही सोए पड़े हैं…/कोई भी हिलता- डुलता नहीं है
……..
और बाहर पटाखे चलने जैसी आवाज़ें आ रही हैं।
माँ मुझे बहुत डर लग रहा है,
आप दोनों कहाँ छिपे हैं?
………
माँ! पापा! कुछ लोग बाहर बात कर रहें हैं…
कह रहें है आप दोनों को गोली लगी है…
………
माँ कहो ना इन आंतकियों से,
एक गोली मुझे भी मार दें,
ताकि मैं भी आपके पास आ जाऊँ!
मुझे नहीं आता…
आपके बिना रहना!
माँ नहीं आता…
अकेले जीना…
कन्या-भ्रूण हत्या पर कवयित्री की संवेदनाएँ जगाती कविता समाज को आईना दिखाने का काम करती है-
क्यों है मेरे हिस्से में
सिर्फ कचरे का डिब्बा …
क्यों नहीं माँ का आँचल
पिता का दुलार
ऐसा करते हुए…
क्यों नहीं काँपते हाथ
क्यों नहीं धड़कता दिल
क्यों नहीं तड़पती आत्मा !
ऐ ! मुझे यूँ मारने वाले सुन…
तुम तो मुझसे पहले मर चुके हो

आज के रिश्तों पर अलग- अलग रचनाएँ मन को छू जाती हैं । ‘अनोखा रिश्ता’ एक समर्पण का तो ‘सूनी कलाई’ और ‘रिश्ते-नाते’ रिश्तों की स्वार्थपरक कटु सच्चाई का निदर्शन है –
मैं हर बार हार जाती हूँ…/ इन रिश्तों से/पर फिर भी
हताश नहीं होती/फिर लग जाती हूँ… /इनको निभाने में

कितने बाल-दिवस मनें और कितने बाल-वर्ष लेकिन नन्हे हाथों को जो समाज कलम-किताब की जगह कचरे का थैला या फिर पत्थर और बम थमाए वह सुन्दर भविष्य की चाहना भी कैसे कर सकता है ।उनके मन की बगिया से नन्ही गिलहरी , छोटी चिड़िया ,तितली, सर्कस के मनभावन चित्र मिटाकर विषबेल बोता समाज कवयित्री की लेखनी की धिक्कार का पात्र है-

नंगे बदन, नंगे पाँव/दिनभर दौड़-धूप करते/तब कहीं जाकर
आधा पेट खाना पाते/ इन्हें इस हाल में देख /मेरा मन व्याकुल हो उठता
अन्तर्मन आँसुओं से भर जाता /नहीं देख पाती मैं… /इनको इस हाल में;

नन्ही कलियों से लेकर उम्र दराज महिलाओं तक के साथ घटती बलात्कार की घटनाएँ आए दिन अखबार की सुर्खियाँ बनती हैं ।ऐसी सुर्खियाँ जिन्हें सीधे-सीधे कहना भी शर्म और घृणा की वजह हो जाता है ।कविता के माध्यम से भावना जी ने कहा है-

एक चिड़िया…/आई फुदकती –सी
……………
सारी चंचलता, कोमलता/ नष्ट हो गई /न जुटा पाई साहस/उस दीर्घकाय परिंदे से/खुद को बचाने का…
तितली, चिड़िया, दीप, मछली सबके दर्द को कहती कवयित्री अपनी सृजन यात्रा में अपनी कविताओं से मानव-मन के सुख-दुःख साझा करती हैं , साथ ही रौशन करती हैं ‘आस का दीया’-

शाम की रंगीन
गुलाबी धूप…
मेरे अन्तर्मन में
जगा देती है एक
आस का दीया….
…फिर पुकारती हैं उन खुशियों को जो जीवन को मधुमय कर दें-
फुरसत से घर में आना तुम
और आके फिर ना जाना तुम।
मन तितली बनकर डोल रहा
बन फूल वहीं बस जाना तुम ।…
ऐसी ही स्वाभिमान ,आशा, उल्लास और प्रेम के उजालों से भरी कवितायें हैं –‘भावों को तुम बहने दो’ , ‘प्यार के छींटे’ , ‘नया साल’ और ‘मेरे हमसफ़र’ ,… और भी विविध भावों से अनुप्राणित क्षणिका , मुक्तक , लम्बी कविताएँ, दोहे पुस्तक की विशेषता हैं ।सहज, सरल जैसा आया वैसा कहा ।कविताओं की यही सहजता मुग्ध करती है ।एक क्षणिका देखिए –

प्यार की गहराइयों में
उतरे हम इस कदर…
हमें भनक तक न लगी
पर अस्तित्व गवाँ बैठे…

ऐसे ही ख़ूबसूरत बिम्ब उकेरते इस मुक्तक का सौन्दर्य देखिए-
सागर की लहरों पे लगता,झिलमिल।-सा जो मेला
तारे तो बन जाते घुँघरू,रहता चाँद अकेला
करवट लेकर किरणें बोलीं,यूँ प्यारे सूरज को
मैं तो बड़ी हूँ किस्मत वाली,साथ बड़ा अलबेला।
विविध विषयों पर सुन्दर मोहक दोहे कवयित्री के मनोभावों, उनकी विचारशीलता को प्रकट करते हैं ।नारी पर लिखे दोहे उसके दीन-हीन स्वरुप के स्थान पर तेजस्वी भाव को प्रकट करते हैं , विवाह शीर्षक दोहे बेहद मधुर और सारगर्भित हैं । ‘दीपावली’ उजियार फैलाती है ।निःसंदेह कविताएँ पीड़ा की पाषाण-शिलाओं से निकली सरस धाराएँ हैं ,जो अपनी तरलता से सहृदय पाठक के मन को भिगो देती हैं ।या कहिए कि ऎसी दीपशिखाएँ हैं जो निराशा भरे मन को आशा के उजालों से भरने का प्रयास करती हैं ।
आशा करती हूँ कि भावना जी का यह काव्य-संग्रह सहृदय पाठकों के स्नेह का पात्र होगा और यश से दैदीप्यमान भी !

लेख

सुकेश साहनी की लघुकथाओं में पारिवारिक संबंध और समस्याएँ

By: Dr. Bhawna Kunwar

‘कबीर’ने कभी प्रेम के जिस ‘ढाई आखर’ की बात कही थी,आज कदम-कदम पर उसका खून होता दिखाई दे रहा है।आज सम्पूर्ण समाज स्वार्थ,हिंसा एवं नफरत को अपने हृदय में रचा-बसा बैठा है।वैज्ञानीकरण,मशीनीकरण,शहरीकरण,आधुनिकीकरण आदि ने एक ओर जहाँ उसे अनेक भौतिक सुविधाएँ उपलब्ध कराई हैं ,वहीं दूसरी ओर उसे मानसिक यंत्रणाओं का शिकार भी बनाया है।उसने आदमी और आदमी के बीच के उन सनातन-संबंध-सूत्रों को काट दिया है ,जो मानवीय संबंधों की महक लिये हुए था।आज समाज में जितनी भी विकृतियाँ दृष्टिगत हो रही हैं,उन सबके लिए दोषी निश्चित रूप से वर्तमान व्यवस्था ही है।
भारतवर्ष एक ऐसा देश रहा है , जहाँ सदैव आत्मीय संबंधों को महत्त्व दिया जाता रहा । इसी के महत्त्व को समझते हुए ही यहाँ प्राचीन काल से ही संयुक्त-परिवार की परम्परा रही है।संयुक्त-परिवार में रहते हुए मनुष्य का परस्पर प्रेम,स्नेह,सहानुभूति एवं भाईचारा बना रहता है।इन्हीं मानवीय गुणों का प्रचार एवं प्रसार भारतवासी प्रारम्भ से ही करते आए हैं।विश्वबन्धुत्व का विचार भी भारतवर्ष की ही देन है।प्रत्येक भारतीय का हृदय सदैव से ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना से ओत-प्रोत रहा है,किन्तु आज के बदलते हुए परिवेश में संयुक्त परिवार विघटन के कगार पर खड़े हैं और शनै: शनै: समाज में एकाकी परिवार की भावना पनप रही है,जिसने हर आदमी के सामने के सामने विभिन्न समस्याएँ एवं परेशानियाँ खड़ी कर दी हैं।घरों और परिवारों के बीच उठने वाली दीवारों ने जहाँ आँगन छोटे कर दिए हैं , वहीं मन भी छोटे हो गए हैं .वहीं आपसी संबंधों में दरारें भी पैदा कर दी हैं।खुले स्थान के प्रतीक आँगन आज बँटवारे की भेंट चढ़ गए हैं।जब से आँगनों के बीच में दीवारें खिंच गई हैं, तब से हमारी वास्तविकता सबके सामने अपने नग्न रूप में उजागर हो गई है।
बँटवारे की यह अदृश्य आग आज आम आदमी को ऊपर से नीचे तक झुलसा रही है और जिससे उसकी स्थिति उस मुसाफ़िर जैसी कर दी है, जो रेगिस्तान में अपने काफ़िले से बिझुड़ गया हो।आज का मनुष्य अपने समाज और परिवार से कट कर रह गया है।आज वह स्वयं को अकेला महसूस कर रहा है क्योंकि उसके मन से मनुष्य के प्रति प्यार की भावना नष्ट होती जा रही है और उसका स्थान नफ़रत की वह भावना ले रही है जिसने आँगन में इतनी ऊँची दीवारें खड़ी कर दी हैं कि आँगन का आस्तित्व ही समाप्त हो गया है, हमें सोचना यह है कि ये दिलों के फ़ासले कैसे कम किए जा सकते हैं जिससे बँटते हुए आँगनों को बचाया जा सके।आज आँगन में लगा तुलसी का बिरवा भी इन बँटते हुए आँगनों के कारण इस असमंजस में हैं कि न जाने उसकी स्थिति भविष्य में क्या होने जा रही है?
जहाँ पहले सम्मिलित परिवारों में बुजर्गों का स्थान उच्च और सम्माननीय होता था वहीं आज उपेक्षा और बोझ में तबदील हो गया है।पुराने वक़्त में घर में बड़े बुजुर्गों की सलाह के बिना कोई भी काम नहीं होता था,चाहे वो शादी विवाह का मामला हो,तीज त्योहार हो या फिर कोई और काम उनका वर्चस्व अलग ही होता था।बड़े परिवार को एक सूत्र में बाँधकर रखना ये उनके कारण ही संभव हो पाता था। बड़ों का मान- सम्मान सभी परिवार के सदस्य खुशी-खुशी करते थे।घर में बड़े बुज़ुर्गों का बैठे रहना ही अपने आप में बड़ा महत्तपूर्ण माना जाता था।बच्चों में बडों के प्रति आदर भाव, मान-सम्मान,प्रेम,आँखों की शर्म और एक दूसरे की इज़्ज़त करने के भाव कूट-कूट कर भरे होते थे।पोतों-पोतियों वाले परिवारों में रात के वक्त जमघट लगाकर बैठना,बड़ों से किस्से कहानियाँ सुनना एकजुटता की मिसाल कायम करते थे। आज के भौतिकवाद युग में इसका एकदम उल्टा हो गया है।आज बड़े बुज़ुर्ग परिवार में सिर्फ बोझ बनकर रह गए हैं उनकी उपेक्षा की हद ही पार हो गई है अब उनका स्थान घर में नहीं वृद्धाश्रमों में हो गया है,और अगर कोई किसी कारण से घर में भी रख लिया गया तो उसकी इतनी उपेक्षा की जाती है कि देखकर भी कलेज़ा मुँह को आता है।
शिक्षित परिवार हो या कि फिर अशिक्षित दोनों में ही देखा जाता है कि आज कि युवा पीढ़ी से तालमेल बिठाना असम्भव- सा हो गया है।वृद्धावस्था में शरीर में कमजोरी का आना अपने काम खुद ना कर पाना भी ऐसी परिस्थिति को उत्पन्न करता है।विचारों की विभिन्नता भी एक बड़ा कारण है। आज का युवा वर्ग बड़े बुजर्गों को आउटडेटिड मानते हैं और एक अलग ही हवा बनाकर उड़ते हैं।कुछ परिवारों मे बड़ों बुजर्गों की छाया से ज्यादा उनकी माया पर निगाह रहती है ।जीते जी माया मिल गई ,तो बड़े बुजर्गों की काया मिट्टी में मिल जाती है और न दें और अपने बुढ़ापे के लिए सिक्योरिटी के तौर पर रखना चाहे और ख़्याल रखने वाले,सेवा करने वाले को देने का विचार रखें तो मरने का इंतज़ार बेसब्री से होता है।ये मैं कुछ सुनी-सुनाई बातें नहीं देखी हुई बातें बता रही हूँ।
पश्चिमीकरण काअंधानुकरण भी इसका एक कारण है।आज का युवा वर्ग आज़ादी चाहता है उसको किसी की भी टोका-टाकी पसन्द नहीं इसीलिए वह बड़ों को ना तो सम्मान ही देता है और ना उनके बताए रास्ते पर चलना चाहता है ,बल्कि उनको अपमानित और तिरस्कृत भी करता है।” आपको क्या पता”,आप तो पुराने जमाने के हो,ये सब बेकार की बातें हैं,अब समय बदल चुका है,हमें आपकी बात मानकर बाहर अपना मज़ाक नहीं बनवाना।”ये जुमले आप हर घर में कान लगाएँ तो आपको सुनाई देंगे,अगर कुछ परिवारों में ऐसा नहीं मिलता ,तो परिवार और परिवार वाले बड़े भाग्यशाली हैं। जरूर उन्होंने कुछ पुण्य किए होंगे या मोती दान किए होंगे।
हम जिस परिवेश में रहते हैं उसका ही प्रभाव ज़्यादातर हमारी लेखनी में उभरकर आता है।सुकेश साहनी जी की कलम भला इन सब भावों से कैसे वंचित रह सकती थी।साहनी जी ने जो देखा,महसूस किया उसको लिखा।मैं यहाँ पर सामाजिक और पारिवारिक लघुकथाओं के बारे में चर्चा करूँगी।?
लघुकथा गद्य की एक ऐसी नाज़ुक विधा है,जिसमें अतिरिक्त के लिए कोई स्थान नहीं है।इसमें छोटी-छोटी बातों से कथा के महत्त्व को बढ़ाया और घटाया जा सकता है। जहाँ किसी भी तरह के अतिरिक्त शब्द या वाक्य कथा के स्तर को गिरा सकते हैं ,वहीं कुछ शब्दों या वाक्यों के कसाव के माध्यम से कथा को बुलंदी पर पहुँचाया जा सकता है।
लघुकथा देखने में जितनी आसान लगती है वास्तव में उतनी है नहीं।इसमें रचनाकार को लिखने की पूरी छूट नहीं होती कम शब्दों में या कहें कि चुने शब्दों में पूरी कथा को एकदम साफ पारदर्शिता बनाते हुए महत्त्वपूर्ण कथ्य को प्रस्तुत करना रचनाकार की कला मानी जाती है।लघुकथा भले ही आकार में छोटी होती हो, परन्तु दस पेज की लिखी कहानी से भी ज़्यादा प्रभाव दिलों पर छोड़ सकती है, अगर लेखक इस विधा में पारंगत हो तो।
कुछ बातें सांकेतिक रूप से भी कही जाती हैं जो कथा के महत्त्व को अलग और ऊँचा स्थान दिलाने में सक्षम होती है। कुछ बातें पाठकों को समझने के लिए छोड़ दी जाती हैं परन्तु सफलता उसी लघुकथा को मिलती है जिसमें कलेवर हो और संकेतों को समझाने की गहन सूझ-बूझ हो ।सुकेश साहनी जी की कथाओं में कथ्य और शिल्प अपने मापदण्डों पर ख़रा उतरता है। छोटी-छोटी घटनाएँ मन में हलचल मचा देती हैं उनमें से कुछ तो भुक्तभोगी लगती हैं और कुछ परिवेश में जानी पहचानी -सी या यूँ कहिए कुछ घटनाओं से अपनेपन का रिश्ता सा हो जाता है । बात तो ये है कि उनको इतने प्रभावी ढग से कहा जाता है कि वे ज़ेहन में रच-बस जाती हैं।
अपने आसपास घट रही घटनाओं को इतनी बारीकी से देखना और सूक्ष्म से सूक्ष्म बात को चमचमाते शीशे की तरह सामने रखना ये सभी रचनाकार नहीं कर सकते मैंने सुकेश साहनी जी की कथाओं में ये सब देखा है,महसूस किया है।सुकेश साहनी का लेखन उच्चकोटि का लेखन है ।आप बहुत ही मँजे हुए लेखक हैं उनकी कल्पना की उड़ान लेखनी को लेकर जाने कौन-कौन से भाव नगर की सैर करती घूमती है, तो कभी निकल पड़ती है यथार्थ को शब्दों में बाँधने के लिए।
उनकी बहुत सारी लघुकथाएँ हैं, जो मुझे पंसद हैं। उनमें से कुछ लघुकथाओं पर मैं बात करूँगी।
1-यही सच है-एक ऐसी सच्चाई को बयान करती है जिसको नकारा नहीं जा सकता मृत्यु एक ऐसा सच है जिसको कोई भी झुठला नहीं सकता और किसी के चले जाने पर दुनिया भी चलती ही है रुकती नहीं इतने अच्छे प्रभावी ढंग से कथा में कहा कि मन पर छाप छोड़ जाता है।पत्नी की मृत्यु के चार दिन बाद जब रजंन के सामने लाल कपड़े में लिपटी उसकी पत्नी की अस्थियाँ रखी होती हैं तब, वो दुल्हन से लेकर आज तक के पाँच स्वर्णिम वर्ष न सिर्फ रंजन की आँखों में बल्कि पाठको की आँखों में भी चलचित्र की भाँति बस जाते हैं।
‘अरे,वो दूध वाली बाल्टी तो रख ली है न?”ससुर की आवाज में कहा ये वाक्य यथार्थ को प्रस्तुत करता है।
इस कथा में दर्द की गहराई है,जीवन की कड़वी सच्चाई भी है दर्द के सैलाब से निकलकर जीवन को आगे चलाने के लिए हिम्मत को बटोरना भी है।यह कथा अपने सभी भावों और कथा शिल्प के आधार पर बहुत प्रभावपूर्ण है।माँ के चले जाने पर बच्चे का अनाथ सा होकर भटकना यह एक वाक्य कलेजे को चीरता हुआ सीधे उस बालक को गोद में उठाने के लिए विचलित कर देता है।
2-गोश्त की गंध– यह कथा एक गरीबी के संघर्ष को दर्शाती है,जहाँ आज भी हमारे देश में बेटियों के ससुराल पक्ष को अपने हैसियत से ज़्यादा देने की परम्परा मौज़ूद है। उनको हर तरह से ख़ुश रखने का प्रयास करते हैं ,ताकि उनके मान-सम्मान में कोई कमी ना रह जाये।
इस कथा में संघर्ष की ज़िंदगी को बहुत ही अनोखे ढंग से दिखाया है।गोश्त की गंध वास्तव में मज़बूरी और गरीबी की एक ऐसी गंध है ,जिसे समाज के कईं तबकों में आसानी से देखा जा सकता।समाज में कितने ही वर्ग हैं- बहुत अमीर,अमीर,गरीब,बहुत गरीब, यानी एक संतुलन नहीं है जो मुझे दूसरे देशों में बहुत हद तक देखने को मिलता है .मेरा मन भी होता कि हमारा देश अन्य देशों की तरह अमीरी-गरीबी के संतुलन को बनाकर एक नई दुनिया का चेहरा सामने लाए।
इस कथा में जो बिम्ब कथाकार ने उकेरे हैं , वे मानस पटल पर शिलालेख की तरह अंकित हो जाते हैं।जब मैनें इस रचना को पढ़ा मेरे रोंगटे खड़े हो गए। ये पुराने और आज के वक़्त का तालमेल बिठाती हुई कथा है जो मेरे मर्म को छू गई।
3-ठंडी रजाई- ठंडी रजाई मानव मन के मंथन की कथा है,या ये कहें कि मनोवैज्ञानिक कथा है।पड़ोसी के रोज-रोज माँगने की आदत से उपजी चिड़चिड़ाहट एक सामान्य आदमी का व्यवहार दर्शाता है।अपनी रजाई में बैठकर भी उनको सर्दी लगना और रजाई ठंडी लगना ये उनके मन की वह बेचैनी है जो वो एकदूसरे को नहीं कह पाते पर मन ही मन दोनों अपने व्यवहार से दुःखी हैं और अन्तर आत्मा उनको अन्दर ही अन्दर रजाई न देने कारण कचोट रही है।उनकी नींद का ना आना उसी अन्तर आत्मा की बेचैनी का हिस्सा है।तभी तो उनके रजाई देकर आने के निर्णय ने उनके भीतर एक सुकून की गर्माहट भर दी और जब तक पत्नी रजाई देकर लौट कर आई पति महाशय उसी ठंडी लग रही रजाई में घोड़े बेचकर सोते मिले।यह वो गर्माहट थी जो दूसरों को मदद करने से मिली थी।
4-चश्मा – इस कथा में समाज की एक ऐसी घिनौनी सच्चाई उभर कर आई जो न जाने कितने ओल्ड ऐज होम पैदा कर रही है।आज समाज में परिवार के बड़े बुज़ुर्गों की जो अवहेलना हो रही है उसको सरल भाषा के माध्यम से बड़े ही प्रभावी ढ़ग से दर्शाया है।कथा की आरम्भ में आभास भी नहीं होता की उसका अन्त मन को झकझोर कर रख देगा। बुज़ुर्ग होना एक अभिशाप- सा बन गया है।ऐसा नहीं है कि मध्यमवर्गीय परिवार में ही बुज़ुर्गों की अवहेलना हो रही है अपने आप में सक्षम व्यक्ति जो एक स्वतंत्रता-संग्राम का सेनानी है व,ह भी तिरस्कृत होता है।उसको मिलने वाली सुविधाओं को उसका अपना ही बेटा अपने लिए गलत तरीके से उपलब्ध कराता है और पिता को छोड़ देता अपने बूढ़े होने के अहसास के साथ।क्या कभी ऐसे लोग यह नहीं सोचते की जब वह वृद्धावस्था में होंगे, तो उनकी संतान भी उनके साथ ऐसा ही व्यवहार करेगी जो वह देख और सीख रही है। काश़! ये अपराध करने से पहले जरा वह खुद के लिए भी ऐसा सोच लें तो, शायद कुछ बुज़ुर्गों की ज़िंदगी सुख-चैन से बीत जाए।
5-हारते हुए– यह कथा मेरे मन के बहुत करीब है।हर माँ बाप का सपना होता अपने बच्चे कोअच्छे से अच्छे कॉन्वेन्ट स्कूल में पढ़ाने की मेरी भी थी।हमारे पास तो दो-तीन गाड़ियाँ भी थीं, तब भी मैंने नम्बर वन कॉन्वेन्ट में अपनी बेटी को पढ़ाने का सपना जाने दिया और बहुत नामी कॉन्वेन्ट स्कूल में पढ़ाया, जिसका रिजल्ट हमेशा अच्छा रहता था और अनुशासन के मामले में बहुत अच्छा था वरना तो मेरी स्थिति भी आज सीताराम जैसी ही होती।कारण सिर्फ एक था कि उस स्कूल में बड़ी-बड़ी इंडस्ट्री वालों के बच्चे पढ़ते थे। मुझे लगा कल जब बच्ची बड़ी होगी तो वह हीन भावना की शिकार न हो जाए और मेरा फैसला सही भी रहा।
आज सीताराम की स्थिति देखकर मेरा मन पसीज़ उठा।उसके बेटे के द्वारा की गई उसकीअवहेलना मुझे अंदर तक न सिर्फ़ झकझोर गई ,बल्कि छन्न से कुछ टूटने की पीड़ा से भी भर गई और ऐसा लगा जैसे मेरी बेटी ने मेरे साथ ऐसा व्यवहार किया है।तभी सपने से उठती सी हूँ और देखती हूँ मैं तो सुकेश साहनी जी की ‘हारते हुए’ कथा पढ़ रही हूँ।जी नहीं यह एक सिर्फ शब्दों को जोड़कर लिखी गई मामूली -सी कथा नहीं है। यह तो वह यथार्थ है, जो हमारे समाज में हर कदम पर देखा जा सकता है।हर माँ बाप की तमन्ना होती है कि वह बड़े से बड़े स्कूल में अपने बच्चे को पढ़ाएँ भले ही उनकी हैसियत न हो।बच्चे भी शर्म महसूस करते हैं जब वो देखते हैं कि स्कूल तो समान है, पर हैसियत में उनके माँ बाप कुछ भी नहीं हैं और बच्चों के माँ बाप के मुकाबले तो वो हीन भावना का शिकार होते हैं और अपने माँ बाप का सम्मान नज़रों से खो देते हैं।मेरा मानना है कि उन्हें हीन भावना और खुद को तिरस्कृत होने से बचाने के लिए अपनी हैसियत के हिसाब से ही स्कूल का चुनाव करना चाहिए और अपने बच्चों को अच्छे गुण और संस्कार देकर अच्छे इंसान बनाने की तरफ ज़्यादा ध्यान देना चाहिए।जो भेड़ चाल आज समाज में हर तरफ दिख रही है उससे हटकर एक ऐसा रास्ता बनाना चाहिए जो पछतावे को नहीं नव निर्माण को जन्म दे।
6-मृत्युबोध-मृत्युबोध लघुकथा में अपनों से दिया दर्द सुमित्र की दिल की दहलीज पर आकर आँखों में आँसुओं की धार बनकर बह निकलता है ये आज के समाज में परिवारों के बीच बढ़ती दूरियाँ,नष्ट होती रिश्तों की मर्यादा,टूटते हुए प्रेम के रिश्ते,माता-पिता के बुजुर्ग होने पर उनकी अवहेलना को दर्शाता है या ये कहें कि जब तक बच्चों को उनके सहारे की जरूरत होती है तब तक ही वो माता-पिता हैं बाद में वही माता-पिता उनके लिए एक भारी बोझ बन जाते हैं जिसको जल्दी से जल्दी वो अपने सिर उतारना चाहते हैं।वो भूल जाते हैं कितना कष्ट सहकर उन्होंने उनकी परवरिश की,पढ़ाया-लिखाया जो आज वो होते हुए नफे और नुकसान की बात कर रहें हैं ,उन सबके काबिल भी तो उन माँ-बाप ने ही बनाया है।रात-रात भर जागकर जिन बच्चों के सिरहाने माँ-बाप की रातें कटीं, वहीं बच्चे आज उस माँ की जल्दी से साँस बंद होने की प्रतीक्षा कर रहें हैं, ताकि वो सब अपने-अपने काम में लग जायें और किसी भी तरह का नुकसान उनको उस माँ के मृत्यु के इंतज़ार के कारण न भरना पड़े।ये बात मन में उमड़ता हुआ पीड़ा का सैलाब भर देती है।
जिस माँ ने कभी अपने बारे में सोचा ही नहीं पूरा जीवन अपने बच्चों पर न्योछावर कर दिया आज उसी माँ के मरने की प्रतीक्षा की बेचैनी सबको परेशान कर रही है। कहाँ गए मानव मूल्य? कहाँ सो गई संवेदनाएँ,कहाँ लुप्त हो गया माता-पिता के लिए श्रवण कुमार जैसा प्रेम?यह कथा बहुत सारे सवाल आँखों के आगे रखकर उत्तर पूछती है जिसका किसी के पास कोई उत्तर है नहीं।इस कथा में किसी तरह का फालतू फैलाव नहीं है,इतनी सुस्पष्टता से कथा को प्रस्तुत किया है कि ये किसी भी प्रकार के दोष में नहीं फंसी है।निश्चित रूप से पाठकों के मन पर एक ऐसा प्रभाव छोड़ चली है जिसको मिटाना संभव नहीं है।
7-पितृत्व-रिश्तों में भेदभाव पर लिखी पितृत्व लघुकथा के दृश्य आँखों में इस तरह उतर आते हैं कि वह जीते-जागते नज़र आते हैं। एक ही व्यक्ति का दोहरा चेहरा साफ नज़र आता है जो बहू के लिए कुछ और बेटी के लिए कुछ और सोचता है।मिटते हुए मानवीय मूल्यों पर गहरा कटाक्ष है जहाँ सम्मिलित परिवार में बड़ों के आशीर्वाद से परिवार को एक नई दिशा मिलती है वहीं ‘अकेले राज करेगी’जैसे वाक्य से मानवीय मूल्यों को पहुँचने वाली बड़ी हानि से एक पीड़ा की नदी मन के भीतर बह निकलती है।जो शायद कभी भी नहीं सूखेगी।
एक गहरा कटाक्ष जो आत्मा तक को झकझोर देता है।अपनी बेटी लिए एक ऐसा परिवार जिसमें कोई नहीं है सब मर चुके हैं ये एक दुःखद बात होनी चाहिये, पर ऐसा नहीं है वहाँ तो खुशी और सुख की गंगा यमुना बह रही है,बेटी को जिम्मेदारियाँ न निभानी पड़े बस यही सोचकर पिता गदगद हुए जा रहें हैं, पर दूसरे की बेटी को घर में खटने के लिए रखा है,उससे सेवा कराते हुए आनन्द की जो लहर मन में उठती है -गर्म खाना आदि भला ये भेदभाव क्यों ।क्या वह किसी की बेटी नहीं है?ये रिश्तों में अपने और पराए के भेदभाव को दर्शाती बहुत अच्छी कथा है।
8-विजेता-विजेता में भी एक तिरस्कृत पिता की कथा है जैसे कथा “चश्मा” में थी परन्तु दोनों कथाओं में बड़ा अन्तर भी है।”चश्मा” कथा में जहाँ पुत्र पिता को मिलने वाली सुविधा को खुद प्राप्त करके पिता को पुराने चश्में से अख़बार पढ़ने का मुश्किल प्रयास करने के लिए छोड़ देता है वह पिता के असहाय और मज़बूर होने के भाव को दर्शाता है,जबकि ‘विजेता’ में-सभी बेटों के पास बारी-बारी जाकर जब वृद्ध अपमानित होता है तो वह आत्मनिर्भर होकर अपना जीवन-यापन करता है।खुद खाना बनाता है,खुद को जवान कहता है देखिए- “अपना काम ख़ुद करना चाहिए—और फिर—अभी मैं बूढ़ा भी तो नहीं हुआ हूँ—है न!”,”तो ठीक है,अब दो जवान मिलकर खाना बनाएँगें।
“ये वाक्य बूढ़े के आत्मविश्वास,आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान को दर्शाते हैं। जीवन के प्रति आशा को जन्म देते हैं ना कि निराशा को।
इस तरह का लेखन अगर हम समाज को देंगे तो निश्चित रूप से बदलाव की संभावना होगी।अब ये आपकी सोच पर निर्भर है कि या तो वृद्धावस्था में परिवार द्वारा अपमानित और तिरस्कृत होते रहो या फिर’विजेता’ के वृद्ध की तरह जीवन से हार न मानकर आत्मविश्वास की लाठी लेकर,संयम और मेहनत की टोकरी को सर पर रखकर पाँव में जीत की जूती पहन खुद भी विजेता बनो।मोतियाबिंद के कारण एक आँख तो पहले ही रोशनी खो चुकी है आने वाले वक़्त में दूसरी की भी रोशनी चले जाने से वह भयभीत नहीं होता ,बल्कि दूसरों के लिए काम करने की भी हिम्मत रखता है और वह सब कुछ कर पाएगा यह सोचकर खुशी से झूम उठता है।
“मुझ अंधे को इसकी क्या ज़रूरत होगी?—होगी—तब भी रोशनी की ज़रूरत होगी—अपने लिए नहीं—दूसरों के लिए—मैंने कर लिया—मैं तब भी अपना काम खुद कर लूँगा!”
जीवन को वृद्ध ने बोझ नहीं माना,ना ही जीवन के प्रति कहीं कोई भी निराशा का अंश ही देखने को मिला। इसके विपरीत जीने की लालसा उसके भीतर विद्यमान है।समाज को एक अच्छा संदेश देती हुई ये कथा शायद वृद्धों की सोच में कुछ बदलाव ले आए और वह भी खुद को भी “विजेता” के वृद्ध के समान मज़बूत और आत्मविश्वास से भरा हुआ बनाने में सक्षम हों और किसी प्रकार से कमज़ोर महसूस ना करें। हालात और परिस्थितियाँ जैसी भी हों मनुष्य को कभी हार नहीं माननी चाहिए और ना ही किसी प्रकार की निराशा को ही जीवन में स्थान देना चाहिए। इन सभी गुणों से परिपूर्ण ये कथा बहुत प्रभावशाली है।
9-तृष्णा-इस कथा में दो तरह के लोगों की सोच को बहुत बख़ूबी से दर्शाया है।एक तरफ तो रोहित है जो संतान के लिए तड़प रहा अपनी संतान खो देने से दुःखी और हसरत भरी निगाहों से दूसरे की संतान को देखता है और उसका मन रोता है दूसरों को भाग्यशाली और खुद को अभागा मानता है और दूसरी ओेर संतान तो है पर लड़की है यह कुत्सित और छोटी सोच से बुढ़िया बड़ी त्रस्त है, तभी तो कहती है-“लड़का था जभी तो रुका नहीं! अब देखो,मेरी बहू ने यह तीसरी लौंडिया जनी है!!—दो क्या कम थीं बाप की छाती पर मूँग दलने के लिए—भला बताओ—इसकी क्या जरूरत थी —यह तो न मरी ससुरी—“
ये वाक्य उस बुढ़िया की संकीर्ण और रूढ़िग्रस्त सोच को उज़ागर करते हैं। एक समय था जब बच्ची पैदा होते ही बहुत जगह पर मार दिया जाता था,उनको बोझ समझा जाता थ॥ उनको पढ़ाना-लिखाना,शादी-ब्याह कराना मानों उनके लिए एक सज़ा होती थी, तो बस जीवन लीला ही समाप्त कर दो,कितनी ओछी और घटिया सोच थी।आज लड़कियाँ चाँद तक जा पहुँची हैं, न जाने जिनको बिना बात मौत के मुँह में सुला दिया गया वो आज क्या होतीं।
इस तरह के किस्से-कहानियों पर विश्वास नहीं होता था कि क्या इस तरह भी किसी को मौत के मुँह में धकेल दिया जाता है।मुझे विश्वास तब हुआ जब मेरी नानी ने अपने बारे में ये बताया कि उनको उनकी माँ दो रात जंगल में लेकर पड़ी रहीं और उनकी जान बचाई।
आज का दौर भी एकदम नहीं बदला। जहाँ पहले पैदा होने के बाद लड़कियों को मार दिया जाता था ,वहाँ अब पेट में ही मार दिया जाता है। यह आधुनिकीरण की देन है।माना कि नियम कानून बना दिये गए हैं; लेकिन अभी भी चोरी छिपकर इस तरह के अपराध हो रहें हैं।
ये नमूना है उन छोटी सोच वालों का जहाँ आज भी बेटियों को बोझ समझा जाता है और उनके अस्तित्व को नकारा जाता है।क्या ये भेदभाव सही है?यह कथा यही सवाल खड़ा करती है।
बच्ची बुढ़िया की बातें सुनकर जब टकटकी लगाकर उसको देखती है तो लगता है मानों कह रही हो-तुम्हारे कोसने से तो मैं मरने से रही । मुझे संसार में लाने वाला ऊपर से तुमको देख रहा है,तुम एक औरत होकर ऐसा विचार रखती हो धिक्कार है तुमको।
10-गुठलियाँ- गुठलियाँ-तृष्णा की तरह गुठलियाँ भी एक ऐसी कथा है जिसमें लड़के-लड़की के भेद को वर्णित किया गया है। बड़े शर्म की बात है- सभी दुहाई देते हैं कि जमाना बदल गया है, ये मार्डन टाइम है, पर पूरी तरह ऐसा नहीं हुआ है।
दूध से बनी चाय पीकर सुभद्रा को जो अपना पुराना वक़्त याद आता है ।उसे पढ़कर मैं खुद को भाग्यशाली समझती हूँ दो बहनों के बीच हमारा बड़ा भाई और हमने कभी वह भेदभाव जाना ही नहीं जो सुभद्रा ने सहा।सुभद्रा की कहानी पढ़कर मेरा मन बहुत भावुक ही नहीं हुआ बल्कि आश्चर्य से भर गया कि जेन्डर के आधार पर खाने-पीने में भी भेदभाव क्यों?इंसानियत कहीं है भी या नहीं? क्या लड़का या लड़की होना हमारे खुद के हाथ में होता?और ये भेद भला क्यूँ?
सुभद्रा का शहतूत पंसद होते हुए भी उनको ना खाना,भाइयों और पिता के बादाम और चिलगोजे को मूँगफली की तरह खाते रहना देखकर, स्वाभाविक है कि ईर्ष्या को पैदा करेगा।माँगने पर माँ का कहना-“ये सब चींजे लड़कियों के खाने के लिए नहीं होतीं।”मन में दर्द का लावा सा फूट पड़ता है।क्या लड़कियों का मन नहीं होता?क्या लड़कों का मन मोम का और लड़कियों का मन पत्थर का होता है या फिर लड़कियों की जिह्वा में स्वाद की ग्रन्थियाँ ही नहीं होती?जब सब समान भावनाएँ होती हैं तो खान-पान या पहनावे में लड़कियों को पीछे करके, क्यों लड़को को सोने की तराजू में तोला जाता है?
सुभद्रा की तन्द्रा भंग हुई जब उसने राकेश को यह कहते सुना कि-“माँ हम लोग कल बीस-पच्चीस दिनों के लिए एल-टी-सी-पर साऊथ जा रहे हैं—तुम हमारे पीछे घर का ज़रा ध्यान रखना–।”
गाढ़े दूध की मीठी चाय अचानक कड़वी लगने लगी ,जो अभी सोच रही थी कि वक़्त बदल गया ।वह अब उसे मुँह चिढ़ा रहा था ,जैसे कह रहा हो मैं कभी नहीं बदलता।हाँ कभी नहीं !! लड़कियों के लिए न मैं कभी बदला हूँ और न ही बदलूँगा।
तभी देखती है कि रीना ने बिट्टी के रोने-गिड़गिड़ाने पर भी उसको गुठली वाला भाग न देकर उसे रोहित को दे दिया और रोहित अपनी बहन की परवाह किये बिना ही गुठली चूसे जा रहा था।सुभद्रा को लगा जैसे उस गुठली में एक जीभ निकल आई है और वह उसको जोर-जोर से चिढ़ा रही है।
आज भी होंगे कुछ परिवार जहाँ ये भेदभाव होता होगा। इस तरह की मानसिकता को जड़ से उखाड़ फेंकने की आवश्यकता है और इसी तरह की धारदार कलम की सहायता से यह सम्भव हो पाएगा।
घर-इस कथा में उन लोगों पर गहरा कटाक्ष है जो धनोपार्जन के चक्कर में अंधे कुएँ में गिरते जा रहें हैं।धन के पीछे दौड़ने से धन तो मिल जाएगा किन्तु बेशकीमती चीज़ ‘रिश्ते’ क्या वह भी मिल पाएँगें,क्या रिश्तों मे एक-दूसरे के प्रति जो मान-सम्मान,प्यार-अपनेपन की भावना को हम इस अंधी दौड़ में सुरक्षित रख पाएँगे? इसी संदर्भ को दर्शाती यह कथा धन के पीछे दौड़ने वालों की मानसिकता को उज़ागर करती है।
11-घर -क्या ईंट पत्थर से बने घर को घर कहते हैं? नहीं… बिल्कुल भी नहीं… घर होता है उसमें रहने वाले वाले इंसानों से, उनके आपसी रिश्तों में,उनके दिलों में बसने वाले प्रेम,मान-सम्मान में,ईंट पत्थर से बने घर को हम मकान तो कह सकते हैं, पर घर तो इंसानों से होते हैं। ख़ूबसूरत कोठी के लॉन में बैठकर प्रभाकर अपने दोस्त के आने पर भी फोन पर पेरिस की किसी फैशन डिजायनर से बात कर रहा है, भई लाखों करोड़ों का मामला होगा कैसे ना करे, दोस्त तो इंतज़ार भी कर सकता है,वह कहाँ भागा जा रहा है,पहला कटाक्ष इस कथा में यहाँ देखने को मिलता है।अगर एक सामान्य परिवार होता जहाँ रिश्तों को महत्त्व दिया जाता है महलों को नहीं तो सबसे पहले गर्मजोशी से दोस्त का स्वागत किया जाता सभी काम छोड़कर, वह चाहे कितने ही ख़ास क्यों ना होते।
रामप्रसाद पानी का एक गिलास मँगाने के लिए बहादुर और किशन को बार-बार बुलाता है पर कोई नहीं आता फिर झल्लाकर रामू को बुलाता है ।पास पड़ी मेज़ पर रखे रिमोट बैल से-‘रामू—ओ रामू !जल्दी लाओ—जल्दी!” झल्लाकर उसने मेज़ पर पड़ी रिमोट बैल को देर तक दबाया।
“इतना ही नहीं पास ही में उसके दोस्त प्रभाकर का बेटा क्यारी के पास खड़ा लाल सुर्ख गुलाबों को बड़े प्यार से देख रहा था…हाँ लाल सुर्ख गुलाब… जो प्रेम का प्रतीक होते हैं पर यहाँ वह प्रेम सूख चुका है… वह प्रेम महल की दीवारों में दफ़न हो चुका है,इतना ही नहीं मिसेज प्रभाकर भी ये सब चीख-चिल्लाहट सुन रहीं हैं पर ख़ुद को बेख़बर सा दिखाकर कैक्टस के पौधों को पानी दे रहीं हैं,भई वो तो बड़े लोग हैं ना,बड़े लोगों में तो ऐसा ही होता है।जब घर में नौकर-चाकर इस काम के लिए रखे हैं तो भला वो काम क्यों करेंगे सुनने के बाद भी क्यों करेंगे? अब उनकी रिश्तों के प्रति जो संवेदनाएँ हैं भावनाएँ हैं वह तो सड़-गलकर समाप्त हो चुकी हैं।
अगर संगमरमर का ये महल ना होता इसके बदले छोटा ही सही घर होता जो लोगों से बनता है तो क्या आज रामप्रसाद को एक गिलास पानी के लिए इतनी मशक्कत करनी पड़ती? नहीं बिल्कुल नहीं,घरों में तो मन की बात तक को पढ़ लिया जाता हैं। निगाहें चेहरे पर डालते ही एकदूसरे के दुःख-दर्द को भाँप लिया जाता है,बिना माँगे ही एक-दूसरे की जरूरत को समझ लिया जाता है।
मेरी सोच महलों के खिलाफ बिल्कुल नहीं है ना पैसा ज़्यादा कमाने वालों के खिलाफ है मेरा मानना है कि जब इतना पैसा आ जाता है कि हम नौकर-चाकर पर ही निर्भर हो जाते हैं तब भी क्या हम रिश्तों में उस तरह का प्यार और अपनापन नहीं रख सकते?पैसा आने पर वह सोच क्यों सुप्त पड़ जाती है, अगर हम पैसा आने के बाद भी अपने रिश्तों में वही प्यार-सम्मान,अपनापन बना कर रखें तो जीवन सुविधाओं से भरा भी हो और प्रेम और स्नेह के नदी में भी खूब ही स्नान करे।तब तो यही दुनिया कुछ अलग ही दुनिया बन जाए।
एक कटाक्ष और देखिए-“रामप्रसाद की आँखों के आगे प्रभाकर का संगमरमरी महल ताश के पत्तों से बने घर की तरह भरभराकर गिर गया।”
यह कथा के लक्ष्य को तीव्रता से उसकी मंज़िल तक पहुँचाता है।
12-काला घोड़ा-यह कथा भी पैसों के पीछे अंधे होकर दौड़ना और रिश्तों के प्रति कुचली हुई भावनाओं,सोई हुई संवेदनाओं और अंधेरे में डूबते हुए प्यार,स्नेह और सम्मान की है।पिता को अपने बेटे शानू को प्यार से उसकी टांगों में लिपट जाने के पीछे उसका पापा के जाने के कारण उमड़ता प्यार नहीं दिखता बस दिखता है तो उसकी पैंट की क्रीज़ का खराब होना।
करोड़ों की डील करने वाले से जब मज़दूरों ने फैक्ट्री में पंखे लगवाने की माँग की तो उन महाशय का कथन देखिए-“सर,कुछ मजदूरों ने फैक्ट्री में पंखे लगवाने की मांग की है ,”प्रोडक्शन मैनेजर ने कहा।”अच्छा! आज अपने लिए पंखे मांग रहे हैं ,कल कूलर लगवाने को कहेंगे।ऐसे लोगों की छुट्टी कर दो।”उसने चुटकी बजाते हुए कहा।”
एक और बड़ा उदाहरण देखिए पैसों के घंमड और महत्व का जहाँ रिश्तों को तार-तार किया जा रहा है।माँ की तबियत खराब होने पर जब डॉ० कहता है कि आपकी माँ की तबियत बहुत ख़राब है आपको घर जाना चाहिए,तब उसका यह कहना कि-“डॉक्टर जो कुछ करना है आपको ही करना है।वैसे भी मुझे एक महत्तपूर्ण बैठक में जाना है।करोड़ों का मामला है।मैं घर नहीं आ पाऊँगा आप माँ को पेन किलिंग इंजेक्शन दे दीजिए।”
कहाँ जा रहा है हमारा समाज? रिश्तों का इतना अनदेखापन?पैसों की इतनी भूख कि बीमार माँ कि जरा भी नहीं पड़ी जिस माँ ने अपना सुख चैन खोकर इन बच्चों को बड़ा किया अपनी कितनी रातें इन बच्चों पर कुर्बान कीं,बच्चों के बीमार होने पर उनको एक पल के लिए भी गोद से नहीं उतारा आज उसके हिस्से में उस प्यार, ममता और बलिदान के बदले इतना परायापन कि आज उसके लिए किसी के पास एक पल भी नहीं है।अब पल की बात तो क्या करें बेटे को तो माँ की बीमारी भी एक चाल लगती है कलेज़ा मुँह को आता है यह सोच मन में आते ही कि उसको ये सब माँ का ड्रामा लगता है- क्यों? देखिए-“ये बूढ़े लोग समझते हैं-जितना शोर मचाएँगे,उतना ही ज्यादा उनकी सेवा होगी।”
एक जननी का इतना बड़ा अपमान?उसे माँ सम्बोधन ना मिलकर बूढ़े का सम्बोधन मिला,इससे ज्यादा गिरने की बात और क्या होगी?
यह कथा आज की उस युवा पीढ़ी के मुँह पर गहरा तमाचा है ,जो अपने माता-पिता के साथ ऐसा दुर्व्यवहार करते हुए पैसों को ही अपना माँ-बाप,अपना जीवन समझ रहे हैं वह गलतफहमी के शिकार हैं कि पैसा उन्हें सबकुछ दे सकता है। वे नादान नहीं जानते कि बिना माता-पिता के आशीर्वाद और प्यार के तो उनका जीवन तो एक मशीन बन ही गया है और परिवार के लोग उसके पुर्जे।किन्तु पुर्जों में तो कभी ना कभी जंग लगेगा ही जैसे कि इस बेटे नाम के पुर्जे में लग चुका है ,जिसे रिश्तों की कद्र ही नहीं रही । उसके परिवार के पुर्जे भी तो यह सब देख और सीख रहे हैं वह दिन दूर नहीं जब वह छोटे पुर्जे बड़े होंगे और ये बड़े पुर्जे बूढ़े… जी हाँ! बूढ़े कहना ही उचित होगा… जो सीखेंगे वहीं तो कहेंगे…लोगों के साथ भी वैसा ही व्यवहार करेंगे।कहावत तो सुनी है ना?-जैसा बोओगे वैसा काटोगे।”
अन्त में मैं यह कहना चाहूँगी कि पारिवारिक विघटन ,धराशायी होते जीवन मूल्यों का बहुत ही सूक्ष्मता से साहनी जी ने विश्लेषण किया है। साथ ही घर , विजेता , गोश्त की गन्ध जैसी लघुकथाओं के माध्यम से आशा की ज्योति भी जलाई है कि सब कुछ अन्धकारमय नहीं है। उजाले की किरण भी भी है। इन सभी समस्याओं का निदान भी है , जिसे लेखक ने प्रकारान्तर से इंगित भी कर दिया है ।

See all posts

Submit your work

How does it work?

Send us your work

We’ll review it

If your work gets approved, it will appear on upcoming magazine issues.

    Team

    Dr. Bhawna Kunwar

    Founder/Editor/Moderator

    Prageet Kunwar

    Sub-editor/Moderator

    Aishwarya Kunwar

    Sub-editor

    Viral Parmar

    Web designer/developer

    Contact us

      Oh hi there 👋
      It’s nice to meet you.

      Sign up to stay in loop.